रिश्तेदारी मे रिश्ता करने से पहले
हाजरीन,
अक्सर देखा गया है, रिश्तेदारी मे अपने बच्चों का रिश्ता करने के कुछ ही दिनों मे रिश्तों मे खटास आ जाती है, फिर रिश्ता तुटता है। इस की सबसे बड़ी वज़ह होती है, मजाज़ी [ अवाजवी ] उम्मीद और अंधा भरोसा।
रिश्ता होने से पहले की हमारी सोच यही होती है की, हमारे सामने बच्चे बड़े हुऐ है, आदत-अख़लाख जाने-पहचाने है। अंजान जगह रिश्ता करने से बेहतर है, रिश्तेदारी मे ही रिश्ता हो।
कुदरत का निज़ाम ही कुछ ऐसा है की, हमे अपनो की बुरी ओर गंदी आदतें दिखाई देती ही नही।
मराठी मे एक कहावत बहुत मशहूर है,'आपला तो बाब्या आणि दुसर्याचं ते कारटं' याने हमारा बच्चा कभी भी गलत कर ही नही सकता। गलत और नालायक तो सिर्फ दुसरों के बच्चे होते है। हम हमारे अपनों के बारेमे गलत सुनना भी पसंद ही नही करते। यही एक बड़ी वज़ह होती है, सही से तहकीकात ना करने की। जिस तरह से बाहर के रिश्ते के लिए हम पूछ-ताछ करते है, उस तरह क़तई तहकीकात नही करते
हम गलत काम अपने बुज़ुर्गों के सामने नही करते इसमे बुजुर्गी कोई मायेने नही रखती। एक मिसाल हम सिगारेट खरीद लेते वक्त दुकानदार की उम्र नही देखते, उस दुकानदार से भी कम अपने बुजुर्ग को देखकर सिगारेट छिपा देते है।
पिठ पीछे किए गये अच्छे और बुरे कामों के बारे मे मालूमात इकट्ठा करना हि तहकीकात कहलाती है।
जब बच्चों के अख़लाक़ / कैरेक्टर को तौला जाता है, तराजू के उसी पार्डे में [ होने वाले समदी ] बहन,भाई या रिश्तेदारों की अच्छाईयों और वक्त-बेवक्त की हुई मदत भी डाली जाती है। हरदम हमारा खयाल रखने वाले, चाचा चाचा, मामु मामु, खाला खाला या अंकल अंकल करते आस पास मंडराने वाले, हमेंशा नमाज, रोजा, दीनी और समझदारी की बाते करने वाले बच्चे और हमारी हर हां मे हां कहने वाले उनके पेरेंट्स, क्या बात है! दुर से और रिश्ता ना होने तक ये बड़ा खुबसूरत और एकदम सही लगता है।
फिर नया रिश्ता बनाने के बाद इतने गहरे ताल्लुक़ात, खुन के रिश्ते मे रंजिश कहां से आयी, सोंचने की बात है।
हम एक बात अक्सर भूल जातें है की, हम जिस तरह दोस्तों का चुनाव कर सकते है, उस तरह रिश्तेदारों का चुनाव नही कर सकते। क़ुदरती रिश्तो के कुछ प्रोटोकॉल कुछ पाबंदियां कुछ छूट होती है। और एक खास बात, एक दुसरे को समझकर लेने का माद्या होता है। हर हाल मे साथ लेकर चलने का चलन आम बात होती है। वहां बहोत सी बातों को नजरअंदाज किया जाता है। मगर यही जब नये बंधन मे बंध जाने के बाद, एक रात मे इनके नाम और किरदार बदल जाता है। जैसे की, कल तक जिसे हम बेटा कहकर पुकारते वो बहु या दामाद बन जाता है। फुफु, मुमानी, खाला, चाची, बड़ेअम्मी, अंटी सास बनकर पेश आती है। फुफा, मामु, खालु, चाचा, बड्डेअब्बा, अंकल ससुर बन जाते है।भाई, साढू, जिजा, साला, दोस्त समदी बन जाते है। बचपन की सहेली और साथ-साथ पढ़कर बड़े हुऐ दोस्त ननंद या देवर बन जाते है।
और जब ये दोनो रिश्ते आपस मे टकराने लगते है, तब इंसानी फितरत आडे आ जाती है। वक्त की नज़ाकत को देखकर फायदे वाला रिश्ता आगे किया जाता है। कभी बेटा कभी दामाद, कभी बहु कभी बेटी, कभी भाई/दोस्त कभी समदी इस तरह कसरत चलती ही रहती है। और कसरत तो कसरत ही है, जाने-अनजाने मे पांव फिसल सकता है।
रिश्तेदारी मे शादी करते वक्त कुछ बातों का खयाल रखेंगे तो इंशाअल्लाह हम जरूर कामयाब होगे।
रिश्ता करने से पहले, दोंनो घरके जिम्मेदार, [ जिस मे लड़का लडकी जरूरी ] शामिल होकर, एक-दुसरे के ख्यालात, सोच और उम्मीदों को आमने सामने बैठ कर राय-मशवरा कर लेना बेहतर होता है। इस बैठक मे सब जिम्मेदार शुरुआत से लेकर आखिर तक मौजूद रहना है।
पुराने घाव, मानापमान, नासुर बने कुछ हादसों की खुलकर बात करने से दिलो-दिमाग मे का मैला साफ होता है। [ नये जोड़े के अपने अरमान अपने सुनहरे खाँब होते है। बच्चों के खुशहाल मुस्तक़बिल मे अपने माजी को मिलाकर दीन और दुनिया खराब ना करना ]
जो भी तैय होता है, उसे कागज़ पर लिख ले। [ मुझपर भरोसा नही है क्या? इन बातों से परहेज करें ]
सभी हाज़ीरन को गवाह बनाकर दोंनो के पास एक एक कॅपी रखना है। [ ये सब हम अल्लाह को राज़ी करने और बच्चों की ख़ुशी के लिए है। इस निय्यत से करेंगे तो इंशाअल्लाह रिश्ते मे प्यार, खुलूस, मज़बूती आयेंगी। ]
मुर्गी घर की हो या बाहर की कभी भी दाल बराबर समझने की भूल ना करना।